kavyasudha (काव्यसुधा)
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की दवा जितनी मरज़ बढ़ता गया,
दोपहर के धूप सा चढ़ता गया।
खूं बहाने की वहीं तैयारियां,
अम्न का मरकज जिसे समझा गया।
साँप हैं पाले हुए आस्तीनों में,
दूध पीया और ही बढ़ता गया ।
है उसी की ही वजह से आसमां,
राह में जो भी मिला कहता गया।
बढ़ गयी कुछ और ही उसकी चमक,
सोना ज्यों ज्यों आंच में तपता गया ।
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नीरज नीर
Neeraj नीर
http://kavineeraj.blogspot.in/
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