kavyasudha (काव्यसुधा)
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दर्पण पे जमी हो धूल तो श्रृंगार कैसे हो,
जब तक है भूखा आदमी तो प्यार कैसे हो .
पढ़ लिख कर सब बन गए शहर में दफ्तर के बाबू ,
खेतों में अनाज की अब पैदावार कैसे हो .
मंहगाई को जिद ही है अब छूने को आसमां,
निर्धन के घर तीज और त्यौहार कैसे हो .
हमारी रोटी छीन कर, सब खा गए डाकू
डाकू और जनता में, कहो सहकार कैसे हो
मतलब नहीं है देश के आदमी को देश से,
राम जाने इस देश का बेड़ा पार कैसे हो .
ले चल अब मुझे दूर कहीं मुर्दों के शहर से ,
मुर्दों के शहर में गजल का कारोबार कैसे हो.
……. नीरज कुमार ‘नीर’
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