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एक पिता के लिए बेटी प्रकृति की सबसे खूबसूरत देन है । बेटी के घर में आते ही घर सुंदर फूलों से भरे उपवन की तरह सज उठता है। जैसे चिड़ियों का कलरव बाग को उसकी पहचान एवं उसका सौंदर्य प्रदान करता है वैसे ही बेटी के घर में होने से घर अपनी संपूर्णता प्राप्त करता है। जीवन में व्याप्त शुष्कता मधुर आनंद में परिणत हो जाती है। गद्य मानो छंदों में आबद्ध होकर किसी सुरीली गायिका के कंठों से निकल कर प्राणमय हो जाती है । इसके बावजूद एक मध्यम आय वर्गीय समाज में एक बेटी के बाप को अनेक चिंताओं से गुजरना होता है । अपनी बेटी को बेहतरीन शिक्षा दीक्षा देने के बावजूद बेटी के जन्म के साथ ही उसकी शादी और उसमें आने वाले खर्च की चिंता से एक पिता सतत ग्रस्त रहता है। पता नहीं सभी समाज में ऐसा होता है या नहीं पर जिस समाज से मैं आता हूँ , वहाँ ऐसा होता है। मेरी भी एक बेटी है और जिसके आगमन ने मेरे घर एवं जीवन को अलौकिक आनंद से भर दिया है । मैंने अपनी भावनाओं को प्रस्तुत कविता में शब्द देने की कोशिश की है। आशा है, आप मेरे मन के भावों को समझेंगे ।
इसे अपनी खूबसूरत आवाज में गाया है सुश्री कुमारी गिरिजा ने , जिसे आप नीचे दिये लिंक पर क्लिक कर सुन सकते हैं। बात दिल तक पहुंचे तो अपनी टिप्पणी जरूर दीजिएगा 🙂
बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
रे बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
घर में पैसे चार नहीं
चल रहा व्यापार नहीं
सोने के बढ़ते दामो ने
मुश्किल किया है सोना
बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
अच्छा तुझको घर मिले
पढ़ा लिखा एक वर मिले
ससुराल की रहो लाड़ली
ना मिले दहेज का ताना
बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
अम्मा के मन बोझ भारी
जोड़ रही इक इक साड़ी
पैसा पैसा करके जमा
मुझको है दहेज जुटाना
बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
गाड़ी घोड़ी मंडप फूल
फांक रहा हूँ कब से धूल
बैंड बाजा लाइट चमचम
और बारात का खाना
बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना
रे बिटिया धीरे धीरे बड़ी होना ॥
………नीरज कुमार नीर
neeraj kumar neer
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